Saturday, April 3, 2010

ज़िन्दगी

कोई ज़िन्दगी से क्या चाहता है बस

थोडा स असुकूं

खोज में जिसकी ताउम्र

चलते रहते है मुसाफिर

इसी उम्मीद में की कही न कही

मिलेगी उन्हें भी मंजिल

ये दुनिया किसी अप्सरा की भांति

लुभाती है

लक्ष्य को उकसाती है और फिर

शून्य में खो जाती है

और मनुष्य मोह में आकर

aankh मूँद कर चल पड़ता है

हवा के महल बनाने

जानता नहीं की ये दुनिया

किसी की नहीं

न इसका कोई

फिर भी किसी डोर से बंधे

हम इस के साथ कल भी आज भी

दुनिया गोल है इसमें संदेह नहीं

चल पड़े है सब इसी राह

जान कर भी अनजान है की

इसका कोई अंत नहीं

प्रयासरत रहेंगे अंतिम क्षण तक

अंतिम सांस तक की शायद

जहाँ प्राण छुते , जहाँ सांस टूटे

वो ही मंजिल थी , था वो ही सुकून

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